नेकी कर, वॉट्सएप पर डाल!

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आजकल ‘नेकी का दौर’ चल पड़ा है। ऐसा नहीं कि पहले नेकियां नहीं की जाती थी। दुनिया में दो ही तो चीजें सनातन हैं, एक ‘नेकी’ और दूसरी ‘बदी’। पहले बदी इतनी बड़ी नहीं थी कि नेकी का अस्तित्व ही नजर न आए, मगर आज चारों तरफ ‘बदी’ का इतना दबदबा है कि नेकियां अपनी पहचान के लिए छटपटाहट ने हर शहर, गांव, कस्बों में ‘नेकी की दीवारें’ खड़ी करवा दी हैं, जहां लोग पुराने कपड़े टांग जाते हैं। किसी जमाने में मां टांड पर से इन्हीं कपड़ों को निकालकर, ये लंबी किचकिच के बाद बर्तन वाले से एकाध डेगची जुगाड़ लिया करती थी।
यदि हमारे ‘नेकी भरे देश’ की तमाम ‘नेकी की दीवारों’ को एक साथ लगा दिया जाए, तो ये ‘चीन की दीवार’ से भी बड़ी साबित हो जाएगी। इस दौर में ‘नेकी’ चुप्पी साधे नहीं, बल्कि ‘भरभूर शोर’ के साथ की जा रही है। इंसान बकायादा नेकी करने निकल रहा है और बदी करके भाग जा रहा है। सुर्खियां चुगली कर देती है कि सडक़ से गुजरती युवती को किसी दोपहिया या ऑटो वाले ने घर तक छोड़ देने की ‘नेकी’ करते हुए लिफ्ट दी और ‘बदी’ करते हुए उसे घर के बजाय किसी गड्ढे या नाले में फेंक कर चला गया।
सोचता हूं, पुरखे कितने भले होते थे। लोगों की भलाई के लिए कुएं, बावडिय़ा, तालाब बनवा देते और इनसे बेजुबां प्राणी भी जीवन पाते। मगर इन पर कभी उन लोगोंं के नाम गुदे हुए बरामद नहीं हुए। मगर उनकी नेकी को आज तक उनके नाम से ही याद रखा जाता है, मसलन बासाब को कूड़ो (बा साहब का कुआ), सेठजी को तलाव (सेठजी का तालाब), भेरा बा की धरमासाला (भैराजी की धर्मशाला) कहकर ही बताया जाता है।
मगर अब नेकी का वॉट्सएप वाला दौर हैं। लोग नेकी करने का आइडिया मन में आते ही पहले कैमरा उठाते हैं और फिर पूरे ताम-झाम, झांकी-मंडप के साथ नेकी करने निकलते हैं। अगर ढंग-ढांग की नेकी कर ली तो फोटू खिंचवा के पहले वॉट्सएप पे डालेंगे। फिर फेसबुक पे और फिर 30-32 प्रेसनोट छपवा कर शहर के तमाम अखबारों के दफ्तर में देकर आएंगे। ऊपर से एहसान ये लिखकर करेंगे कि ‘अपन तो उन लोगों में से है जो करते हैं, कहते नहीं।’ समाजसेवी संस्थाएं और बजट उड़ाऊ क्लब्स इनमें सबसे आगे हैं। ये दूसरों की ‘नेकी’ करने के बहाने पहले से बजट की ‘रेकी’ कर लेते हैं और उसी हिसाब से नेकी को नेग में बदल लेते हैं। नेता-नगरी इनसे भी आगे हैं। बिस्कुट के 10-12 पूड़े और डेढ़ किलो चीकू लिए ये नहा-धोकर सीधे अस्पताल के वार्ड में पहुंचते हैं और मरीजों को बिस्कुट का पूड़ा देते हुए फोटू खिंचाते हैं और हां, फोटू के समय ये काला चश्मा लगाना नहीं भूलते।
पहले के लोग ‘एक हाथ से दो तो दूसरे को पता न चले’ के सिद्धांत वाले थे। अब एक हाथ दे और दूसरे से सेल्फी खींच वाले हो गए हैं।
मुकेश जोशी, उज्जैन

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