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व्यंग्य। दीपावली आ गई, सिरोही जगमगाने लगा। नगर परिषद के अधिकारियों ने निर्णय लिया कि इस बार शहर को ऐसी रोशनी से नहलाया जाएगा कि लोग सूरज को भूल जाएं। आखिरकार, लाइट्स लगाने का कॉन्ट्रैक्ट, झालरों के बिल और रंग-तरंग का बजट हर साल की तरह इस बार भी पूर्ण पारदर्शिता से बंट गया। सबने देखा, शहर के मुख्य मार्ग—पैलेस रोड—पर रंग-बिरंगी लाइट्स की जाल बिछ गई। हर गली में ऐसी व्यवस्था कि बिना चश्मा लगाए देखना मुश्किल! मगर, नगर परिषद की रचनात्मकता ने इस बार एक नया इतिहास रच दिया। जो गमले पिछले साल टूट-फूट गए थे, उसमें पौधे तो क्या, मिट्टी भी बाहर झाँक रही थी। पर समिति ने कहा—गमला नया हो या टूटा, रंग तो सबको चढ़ सकता है। पकड़ा गया ब्रश, और टूटा गमला अब बिना प्लास्टर के ही शोभा बढ़ाने लगा। यह देखकर शहर के बुद्धिजीवी बोले, वाह! यह तो इनोवेटिव आर्ट है। दुश्मन की नजर से बचाने की घरेलू जुगाड़। किसी ने फोटोग्राफी कर डाली और सोशल मीडिया पर लिखा—यह गमला नहीं, हमारे शहर का टूटता सपना है। शहर के विधायक और सांसद भी रोज इन रास्तों से गुजरते हैं। मगर उनकी नजर तो उन लाइटों पर थी जिनके रंगों के पीछे शहर की गड्ढेदार सडक़ों का सच छिपा था। चुनावी घोषणापत्र में अच्छे दिन तो थे, लेकिन शायद गलती से गमले बदलेंगे का वादा एक्स्ट्रा कागज पर रह गया था। आखिरकार, दीपावली के इस उत्सव में सिरोही के लोग अब टूटे गमले को ही शुभ-चिन्ह मानने लगे हैं। बच्चों को बताया जाता है—देखो बेटा, अगर सरकारी काम में कमी रह जाए तो बस थोड़ा रंग-रोगन कर दो, सब ठीक लगने लगेगा! टेढ़े-मेढ़े गड्ढों वाली सडक़ पर चमचमाती लाइटें, टूटे गमलों की रोनक, और जनता की आसमान छूती उम्मीदें—बस सिरोही नगर परिषद का वार्षिक मैनेजमेंट इसी को कहते हैं। और इस बार भी दिवाली की रोशनी ने हर अंधेरे को नहीं मिटाया, जहां गमलों की टूटी चूड़ी जरूर चमका दी! इस कहानी के माध्यम से नगर परिषद की कार्यप्रणाली पर कटाक्ष किया गया है, जहाँ समस्याओं का हल दिखावे और रंग-रोगन से ढकने की कोशिश की जाती है, आमजन की चिंता और सुरक्षा को नजरंदाज कर दिया जाता है।

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